’’ब्रह्म बेदी‘ brahma Vedi by Kabir Saheb ji की अमृतवाणियों में छुपे रहस्यों को समझें
Brahma Vedi AmritVani
ब्रह्म बेदी का अर्थ परमात्मा की भक्ति का सुसज्जित आसन जिसके ऊपर छतर या चाँदनी लगी हो, सुन्दर स्वच्छ गलीचा या गद्दा बिछा हो जैसे पाठ प्रकाश के समय श्री सद्ग्रन्थ साहेब का आसन तैयार करते हैं। भावार्थ है कि आत्मा में परमात्मा की बेदी बनाकर परमेश्वर को आसन-सिहांसन पर विराजमान करके उसकी स्तुति करें। संत गरीबदास जी की वाणी:-
ज्ञान सागर अति उजागर, निर्विकार निरंजनं। ब्रह्मज्ञानी महाध्यानी, सत सुकृत दुःख भंजनं।।
सरलार्थ:- हे परमेश्वर! आप सर्व ज्ञान सम्पन्न हो, ज्ञान के सागर हो। आप अति उजागर अर्थात् पूर्ण रूप मान्य हो। सर्व को आपका ज्ञान है कि परमात्मा परम शक्ति (Supreme Power) है। इस प्रकार आपका सर्व को ज्ञान है। यह तो उजागर अर्थात् स्पष्ट है कि परमात्मा समर्थ है। आप निर्-विकार निरंजन हो। आप में कोई दोष नहीं, कोई विषय-विकार नहीं है। आप वास्तव में निरंजन हैं। निरंजन का अर्थ है माया रहित अर्थात् निर्लेप परमात्मा। काल भी निरंजन कहलाता है। वास्तव में वह निरंजन नहीं है, वह ज्योति निरंजन है। काल (Kaal) निरंजन है, वह निर्विकार निरंजन नहीं है।
हे परमात्मा! आप ब्रह्म ज्ञानी अर्थात् परमात्मा का ज्ञान अर्थात् अपनी जानकारी आप ही प्रकट होकर बताते हैं। इसलिए आप ब्रह्म ज्ञानी हो। अन्य नकली ब्रह्म ज्ञानी हैं। हे परमात्मा! आप महाध्यानी हैं। आप सर्व प्राणियों का ध्यान रखते हो। इस कारण से आप जैसा ध्यानी कोई नहीं। आप सत सुकृत अर्थात् सच्चे कल्याणकर्ता हो। आप अपने भक्त का दुःख नाश करने वाले हैं
Knowledge of Kamal’s
अब ब्रह्म बेदी की वाणी सँख्या 2 से 8 तक मानव शरीर में बने कमलों का वर्णन संत गरीबदास जी ने किया है। साथ में उनके कमलों को विकसित करने के मंत्रा भी बताए हैं। परंतु इन मंत्रों के जाप की विधि केवल मेरे को (Sant Rampal Dass को) पता है तथा भक्तों को नाम दान करने की आज्ञा भी मुझे ही है। यदि कोई इन मंत्रों को पढ़कर स्वयं जाप करेगा तो उसको कोई लाभ नहीं होगा।
पहले यह मानव शरीर में बने कमलों का चित्र देखें:-

Kabir Saheb ji – Vani of Suksham Ved
वाणी:- मूल चक्र गणेश बासा, रक्त वर्ण जहां जानिये।
किलियं जाप कुलीन तज सब, शब्द हमारा मानिये।।
सरलार्थ:- मानव शरीर में एक रीढ़ की हड्डी है जिसे ठंबा भी कहते हैं। गुदा के पास इसका निचला सिरा है। इस रीढ़ की हड्डी के साथ शरीर की ओर गुदा से एक इन्च ऊपर मूल चक्र (कमल) है जिसका रक्त वर्ण अर्थात् खून जैसा लाल रंग है। इस कमल की चार पंखुड़ियाँ हैं। इस कमल में श्री गणेश देव का निवास है। हे साधक! इस कमल को खोलने यानि मार्ग प्राप्त करने के लिए ‘‘किलियम्‘‘ नाम का जाप कर और सब कुलीन अर्थात् नकली व्यर्थ नामों का जाप त्याग दे, हमारे वचन पर विश्वास करके मान लेना।
स्वाद चक्र ब्रह्मादि बासा, जहां सावित्री ब्रह्मा रहैं।
हरियम जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग सतगुरु कहैं।।
सरलार्थ:- मूल चक्र से एक इन्च ऊपर स्वाद कमल है। इस कमल में सावित्राी तथा ब्रह्मा जी का निवास है। इस कमल को खोलने अर्थात् मार्ग प्राप्त करने के लिए ओम् नाम का जाप कर। यह भेद परमेश्वर कबीर जी ने मुझे (Sant Garib Dass से) सतगुरू रूप में प्रकट होकर कहा है।
नाभि कमल में विष्णु विशम्भर, जहां लक्ष्मी संग बास है।
हरियं जाप जपन्त हंसा, जानत बिरला दास है।।
सरलार्थ:- शरीर में बनी नाभि तो पेट के ऊपर स्पष्ट दिखाई देती है। इसके ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर यह नाभि चक्र (कमल) है। इसमें लक्ष्मी जी तथा विष्णु जी का निवास है। इस कमल को विकसित करने और मार्ग खोलने के लिए हरियम् नाम का जाप करना चाहिए। इस गुप्त मंत्र को कोई बिरला ही जानता है जो सतगुरू का भक्त होगा।
हृदय कमल महादेव देवं, सती पार्वती संग है।
सोहं जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग भल रंग है।।
सरलार्थ:- हृदय कमल की स्थिति इस प्रकार है:- छाती में बने दोनों स्तनों के मध्य स्थान में ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी पर यह हृदय कमल बना है, दिल अलग अंग है। हृदय मध्य को भी कहते हैं। जैसे यह बीच (मध्य) का कमल है। तीन इससे नीचे तथा तीन ऊपर बने हैं। इस कारण से इसको हृदय कमल के नाम से जाना जाता है। इस कमल में महादेव शंकर जी तथा सती जी (Parvati ji) रहते हैं। इस कमल (Chakra) को विकसित करने और मार्ग खोलने का मंत्रा ‘‘सोहम्‘‘ जाप साधक को जपना चाहिए। जो ज्ञान योग में वास्तविक ज्ञान मिला है, यह अच्छा रंग अर्थात् शुभ लगन का कार्य है। इस
यथार्थ ज्ञान के रंग में रंग जाओ।
कंठ कमल में बसै अविद्या, ज्ञान ध्यान बुद्धि नासही।
लील चक्र मध्य काल कर्मम्, आवत दम कुं फांसही।।
सरलार्थ:- गले के पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर यह कण्ठ कमल बना है। इसमें अविद्या अर्थात् दुर्गा जी का निवास है। जिसके प्रभाव से जीव का ज्ञान तथा भक्ति के समय ध्यान समाप्त होता है तथा दुर्गा बुद्धि को भ्रष्ट करती है। यह लील चक्र अर्थात् 16 पंखुड़ियों का यह चक्र है। इसी के साथ सूक्ष्म रूप में काल निरंजन भी रहता है। दुर्गा देवी जी काल निरंजन की पत्नी है। काल ने गुप्त रहने की प्रतिज्ञा कर रखी है। ये दोनों मिलकर भक्त के अध्यात्म ज्ञान तथा ध्यान को तथा श्वांस से किए जाने वाले नाम स्मरण को भुलाते हैं। इस कमल को विकसित करने और मार्ग खोलने का श्रीयम् मंत्र है।
वाणी:- त्रिकुटी कमल परम हंस पूर्ण, सतगुरु समरथ आप है।
मन पौना सम सिंध मेलो, सुरति निरति का जाप है।।
सरलार्थ:- मस्तिष्क का वह स्थान जो दोनों आँखों के ऊपर बनी भौवों (सेलियों) के मध्य जहाँ टीका लगाते हैं, उसके पीछे की ओर आँखों के पीछे यह त्रिकुटी कमल है। इसमें पूर्ण परमात्मा सतगुरू रूप में विराजमान हैं। इस कमल की दो पंखुड़ियाँ हैं। एक का सफेद रंग है, दूसरी का काला रंग है। यहाँ सफेद स्थान पर विराजमान सतगुरू के सारनाम का जाप सुरति निरति से किया जाता है। वह
उपदेशी को बताया जाता है।
वाणी:- सहंस कमल दल भी आप साहिब, ज्यूं फूलन मध्य गन्ध है।
पूरण रह्या जगदीश जोगी, सत् समरथ निर्बन्ध है।।
सरलार्थ:- सहंस्र कमल दल का स्थान सिर के ऊपरी भाग में कुछ पीछे की ओर है जहाँ पर कुछ साधक बालों की चोटी रखते हैं। वैसे भी बाल छोटे करवाने पर वहाँ एक भिन्न निशान-सा नजर आता है। इस कमल की हजार पंखुड़ियाँ हैं। इस कारण से इसे सहंस्र कमल कहा जाता है। इसमें काल निरंजन के साथ-साथ परमेश्वर की निराकार शक्ति भी विशेष तौर से विद्यमान है। जैसे भूमध्य रेखा पर सूर्य की उष्णता अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक रहती है। वह जगदीश ही सच्चा समर्थ है, वह निर्बन्ध है। काल तो 21 ब्रह्माण्डों में बँधा है। सत्य पुरूष सर्व का मालिक है।
मीनी खोज हनोज हरदम, उलट पन्थ की बाट है। इला पिंगुला सुषमन खोजो, चल हंसा औघट घाट है।।
सरलार्थ:- जैसे मछली ऊपर से गिर रहे जल की धारा में उल्टी चढ़ जाती है। इसी प्रकार भक्त को ऊपर की ओर सतलोक में चलना है। उसके लिए इला (इड़ा अर्थात् बाईं नाक से श्वांस) तथा पिंगुला (दांया स्वर नाक से) तथा दोनों के मध्य सुष्मणा नाड़ी है। उसको खोजो। फिर हे भक्त! ऊपर को चल जो औघट घाट अर्थात् उलट मार्ग है। संसार के साधकों का मार्ग त्रिकुटी तक है। संत मार्ग (घाट) इससे आरै ऊपर उल्टा चढ़ने का मार्ग (घाट) है यह सष्मणा सतनाम के जाप से खलु जाता है
वाणी:- ऐसा जोग विजोग वरणो, जो शंकर ने चित धरया।
कुम्भक रेचक द्वादस पलटे, काल कर्म तिस तैं डरया।।
सरलार्थ:- संत गरीबदास जी ने बताया है कि मुझे सतगुरू रूप में परमेश्वर मिले थे। उन्होंने तत्त्वज्ञान बताया, मैनें अभ्यास करके देखा जो खरा उतरा। मैं आपको ऐसा जोग (योग, साधना)तथा विजोग (वियोग अर्थात् विशेष साधना) का वर्णन करता हूँ जो साधना (योग) शंकर जी ने चित्त धर्या (ध्यान किया) समाधि लगाई, सामान्य योग (साधना) तो यह है कि कुम्भक (श्वांस को अंदर लेने की क्रिया को कहते हैं, श्वांस को कुछ समय अंदर रोकना होता है) तथा रेचक (श्वांस को बाहर छोड़ने की क्रिया को रेचक क्रिया कहते हैं)करके किया जाता है।
विजोग अर्थात् विशेष योग का ज्ञान परमेश्वर जी ने ही बताया है जो हमारे पास है जिसके करने से द्वादश वायु पलटती हैं अर्थात् नीचे की बजाय ऊपर को रूख कर लेती हैं। शरीर में पाँच वायु (पान, अपान, वियान, धन्जय, प्राण वायु) का ज्ञान तो सामान्य योग करने वाले योगियों (साधकों) को भी होता है। इसके अतिरिक्त 7 वायु शरीर में ओर हैं जिनका ज्ञान वियोग करने वाले योगियों (साधकों) को ही होता है। वियोग को करने से कर्मनाश होता है। अन्य साधना से कर्म नाश नहीं होते। इसी आधार से काल भगवान दण्डित करता है। कर्मनाश होने के कारण काल भी उस साधक से भय मानता है कि इसको विजोग (विशेष योग) का ज्ञान है। यह परम अक्षर पुरूष का भक्त है।
कन्द्रप जीत उदीत जोगी, षट करमी यौह खेल है।
अनभै मालनि हार गूदें, सुरति निरति का मेल है।।
सरलार्थ:- कंदर्प जीत अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करके उदीत योगी बनता है। {जिस साधक का कंदर्प, शुक्राणु (वीर्य) उर्धव (ऊपर की ओर) चलकर शरीर में समाने लगता है, उसको उदीत योगी कहते हैं। उसके लिए सिद्ध आसन पर बैठकर साधना करनी होती है। षट कर्म अर्थात् धोती, नेती, न्यौली, गज करनी, प्राणायाम तथा ध्यान आदि छः क्रिया करके उदीत योगी बनता है।} यह क्रियाऐं तो भक्ति मार्ग में बच्चों के खेल के तुल्य कर्म हैं। मोक्ष मार्ग तो सहज क्रियाओं (नाम स्मरण-पाँचों यज्ञों) द्वारा प्राप्त होता है। जिससे अनभय मालिन अर्थात् निर्भय हुई आत्मा हार गुदें अर्थात् सत्य मंत्रों का स्मरण सुरति-निरति अर्थात् विद्यिवत् ध्यानपूर्वक करती है। उससे परमात्मा से मिला जाता है।
सोहं जाप अजाप थरपो, त्रिकुटी संयम धुनि लगै।मान सरोवर न्हान हंसा, गंग् सहंस मुख जित बगै।।
सरलार्थ:- कमलों को छेदकर अर्थात् प्रथम दीक्षा मंत्र के जाप से कमलों का अवरोध साफ करके सत्यनाम के मंत्र का जाप करके उससे प्राप्त भक्ति शक्ति से साधक त्रिकुटी पर पहुँच जाता है। त्रिकुटी के पश्चात् ब्रह्मरंद्र को खोलना होगा जो त्रिवैणी (जो त्रिकुटी के आगे तीन मार्ग वाला स्थान है) के मध्यम भाग में है। ब्रह्मरंद्र केवल सतनाम के स्मरण से खुलता है। इसलिए कहा है कि सोहं नाम का जाप विशेष कसक के साथ जाप करने से ब्रह्मरंद्र खुलता है।
सोहं जाप की शक्ति त्रिकुटी तथा त्रिवैणी के संजम (संगम) पर बने ब्रह्मरंद्र को खोलने की धुन अर्थात् विशेष लगन लगे तो वह द्वार खुल जाता है। हे हंस अर्थात् सच्चे भक्त! उसके पश्चात् ब्रह्म लोक में बने मानसरोवर पर स्नान करना, वहाँ से गंगा हजारों भागों में बहती है, निकलती है, अन्य लोकों में जाती है।
Picture of Trikuti & Triveni
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