Kabir Prakat Diwas : Kabir Ji ke Dohe

kabir prakat diwas

कबीर साहेब के हिन्दू मुस्लिम को चेताने और नारी सम्मान के प्रसिद्ध दोहे अर्थ सहित (Kabir Saheb Ke Dohe in Hindi)

kabir prakat diwas

हिंदू-मुस्लिम और अन्य धर्म की प्रभु प्रेमी आत्माएं विभिन्न प्रकार की मान्यताओं और धार्मिक परंपराओं का पालन करती हैं। हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्म के अनुसार वह जिस भगवान, अल्लाह की पूजा करते हैं वह ही श्रेष्ठ, सर्वोच्च और सर्वशक्तिमान है। कबीर जी (Kabir Ke Dohe in Hindi) कहते हैं कि मैंने यह शरीर आत्माओं को परमात्मा के बारे में जानने और मुक्त करने के लिए प्राप्त किया है। कबीर जी वास्तव में सर्वोच्च ईश्वर हैं जो एक संत के रूप में प्रकट हुए, वे धर्म और जाति की बेड़ियों से ऊपर थे। कबीर साहिब जी हिंदू और मुसलमान दोनों को कहते थे कि तुम ‘सब मेरी संतान हो’, कबीर साहिब वाणी में कहते हैं कि

कहाँ से आया कहाँ जाओगे, खबर करो अपने तन की।

कोई सदगुरु मिले तो भेद बतावें, खुल जावे अंतर खिड़की।।

भावार्थ: जीव कहाँ से आया है और कहाँ जाएगा? पंडित और मौलवी इसका जबाब धर्मग्रंथों से देते हैं। कबीर साहब कहते हैं कि इस प्रश्न का सही जवाब चाहिए तो किसी सद्गुरु की मदद लो। जब तक अंतर आत्मा से परमात्मा को पाने की कसक नहीं उठेगी तब तक जीव को इस सवाल का सही जवाब नहीं मिलेगा कि इस दुनिया में वो कहाँ से आया है और एक दिन शरीर छोड़ने के बाद कहाँ जाएगा।

कबीर साहेब के हिंदुओं के लिए दोहे (Kabir Ke Dohe Hinduo ke liye)

माला मुद्रा तिलक छापा, तीरथ बरत में रिया भटकी।

गावे बजावे लोक रिझावे, खबर नहीं अपने तन की।।

भावार्थ: कबीर साहेब जी कहते हैं माला पहनने, तिलक लगाने, व्रत रखने और तीर्थ करने से जीव का आध्यात्मिक कल्याण नहीं होगा। इसी तरह से जो लोग धार्मिक कथाएं सुनाते हैं, भजन गाकर, नाच कर लोगों को रिझाते हैं, वो भी आम जनता को आत्म कल्याण का उचित सन्मार्ग नहीं दिखाते हैं। कबीर साहब कहते हैं कि ज्ञानी और सच्चे साधू वे हैं, जो शरीर को ही मंदिर-मस्जिद मानते हैं और अपने शरीर के भीतर ही परमात्मा को ढूंढने की कोशिश करते हैं। जो अपनी देह के भीतर ईश्वर का दर्शन कर लेता है, उसका जीवन सफल हो जाता है।

बिना विवेक से गीता बांचे, चेतन को लगी नहीं चटकी।

कहें कबीर सुनो भाई साधो, आवागमन में रिया भटकी।।

kabir Ke dohe

भावार्थ: कबीर साहब कहते हैं कि यदि हृदय में विवेक और वैराग्य का उदय नहीं हुआ है तो गीता पढ़ने से भी उसका क्या भला होगा? जब तक मन को सत्य का झटका नहीं लगेगा और हमारी चेतना पूरी तरह से जागृत नहीं होगी, तब तक आत्मा-परमात्मा की अनुभूति नहीं होगी। कबीर साहब फरमाते हैं कि मन ही बंधन और मोक्ष का मूल कारण है। जब तक मन को नियंत्रित नहीं करोगे और आत्मा की अनुभूति नहीं प्राप्त करोगे, तब तक संसार में आने-जाने का चक्र नहीं रुकेगा। आत्मा के द्वारा ही परमात्मा की भी अनुभूति प्राप्त होती है।


एक राम दशरथ का बेटा , एक राम घट घट में बैठा ।

एक राम का सकल पसारा , एक राम त्रिभुवन से न्यारा ||

एक राम इन सबसे न्यारा,  चौथा छोड़ पांचवा को धावै , कहै कबीर सो हम पर आवै ।।

भावार्थ: कबीर साहेब कहते है कि पहला राम दशरथ का बेटा है, दूसरा राम जो हमारे घट-घट में बैठा है और वो है हमारा मन, तीसरा राम काल निरंजन नाशवान 21 ब्रह्मांड का मालिक है, चौथा राम परब्रह्म/ अक्षर पुरुष (नाशवान 7 शंख ब्रह्मांड का मालिक ), परन्तु सबसे न्यारा है पांचवा और असली राम (अनंत ब्रह्माण्ड, अमरलोक का मालिक कबीर परमपिता परमेश्वर ) जो सबसे ऊंचा है, सबसे बड़ी ताकत है, वह इस सृष्टि का कर्ता-धर्ता है। कबीर साहब ने उस सृजनहार या राम को याद करने के लिए कहा है।

क्या मांगुँ कुछ थिर ना रहाई, देखत नैन चला जग जाई।
एक लख पूत सवा लख नाती, उस रावण कै दीवा न बाती।।

भावार्थ :- यदि एक मनुष्य एक पुत्र से वंश बेल को सदा बनाए रखना चाहता है तो यह उसकी भूल है। जैसे श्रीलंका के राजा रावण के एक लाख पुत्र थे तथा सवा लाख पौत्र थे। वर्तमान में उसके कुल (वंश) में कोई घर में दीप जलाने वाला भी नहीं है। सब नष्ट हो गए। इसलिए हे मानव! परमात्मा से यह क्या माँगता है जो स्थाई ही नहीं है। यह अध्यात्म ज्ञान के अभाव के कारण प्रेरणा बनी है। परमात्मा आप जी को आपका संस्कार देता है। आपका किया कुछ नहीं हो रहा है।


कबीर, नौ मन सूत उलझिया, ऋषि रहे झख मार।
सतगुरू ऐसा सुलझा दे, उलझे न दूजी बार।।

भावार्थ :- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि अध्यात्म ज्ञान रूपी नौ मन सूत उलझा हुआ है। एक कि.ग्रा. उलझे हुए सूत को सीधा करने में एक दिन से भी अधिक जुलाहों का लग जाता था। यदि सुलझाते समय धागा टूट जाता तो कपड़े में गाँठ लग जाती। गाँठ-गठीले कपड़े को कोई मोल नहीं लेता था। इसलिए परमेश्वर कबीर जुलाहे ने जुलाहों का सटीक उदाहरण बताकर समझाया है कि अधिक उलझे हुए सूत को कोई नहीं सुलझाता था। अध्यात्म ज्ञान उसी नौ मन उलझे हुए सूत के समान है जिसको सतगुरू अर्थात् तत्वदर्शी संत ऐसा सुलझा देगा जो पुनः नहीं उलझेगा।


कबीर, माया दासी संत की, उभय दे आशीष।
विलसी और लातों छड़ी, सुमर-सुमर जगदीश।।

भावार्थ :- सर्व सुख-सुविधाऐं धन से होती हैं। वह धन शास्त्राविधि अनुसार भक्ति करने वाले संत-भक्त की भक्ति का स्वतः होने वाला, जिसको प्राप्त करना उद्देश्य नहीं, वह फिर भी अवश्य प्राप्त होता है, By Product होता है। जैसे जिसने
गेहूँ की फसल बोई तो उसका उद्देश्य गेहूँ का अन्न प्राप्त करना है। परंतु भुष अर्थात् चारा भी अवश्य प्राप्त होता है। चारा, तूड़ा गेहूँ के अन्न का By Product है। इसी प्रकार सत्य साधना करने वाले को अपने आप धन माया मिलती है। साधक उसको भोगता है, वह चरणों में पड़ी रहती है अर्थात् धन का अभाव नहीं रहता अपितु आवश्यकता से अधिक प्राप्त रहती है। परमेश्वर की भक्ति करके माया का भी आनन्द भक्त, संत प्राप्त करते हैं तथा पूर्ण मोक्ष भी प्राप्त करते हैं।


सतयुग में सतसुकृत कह टेरा,  त्रेता नाम मुनिन्द्र मेरा।

द्वापर में करुणामय कहलाया, कलयुग में नाम कबीर धराया।।

भावार्थ: कबीर परमेश्वर चारों युगों में आते हैं। कबीर साहिब जी ने बताया है कि जब मैं सतयुग में आया था तब मेरा नाम सत सुकृत था। त्रेता युग में मेरा नाम मुनिंदर था द्वापर युग में मेरा नाम करुणामय था और कलयुग में मेरा नाम कबीर है।


चारों युगों में मेरे संत पुकारें, और कूक कहा हम हेल रे।

हीरे मानिक मोती बरसें ये जग चुगता ढ़ेल रे ||

भावार्थ: हम सत साधना और तत्वज्ञान रुपी हीरे मोतियों की वर्षा कर रहे हैं कि बच्चों ये भक्ति करो इससे बहुत लाभ होगा। हमारी बात को न सुनकर इन नकली संतों गुरुओं आचार्यों शंकराचार्यो की बातों पर आरुढ़ हो चुके हो तुम और ये कंकर पत्थर इकट्ठे कर रहे हो जिनका कोई मूल्य नहीं है भगवान के दरबार में।


कबीर, पत्थर पूजें हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।

तातें तो चक्की भली, पीस खाये संसार।।

भावार्थ: कबीर साहेब जी (kabir Ke dohe in Hindi) हिंदुओं को समझाते हुए कहते हैं कि किसी भी देवी-देवता की आप पत्थर की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते हैं जो कि शास्त्र विरुद्ध है। जो कि हमें कुछ नही दे सकती। इनकी पूजा से अच्छा चक्की की पूजा करना है जिससे हमें खाने के लिए आटा मिलता है।

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वेद पढ़ें पर भेद ना जानें, बांचें पुराण अठारा।

पत्थर की पूजा करें, भूले सिरजनहारा।।

भावार्थ: वेदों व पुराणों का यथार्थ ज्ञान न होने के कारण हिन्दू धर्म के धर्मगुरुओं को सृजनहार अर्थात परम अक्षर ब्रह्म का ज्ञान भी नहीं हैं इसलिए वे पत्थर पूजा में लगे हुए है। सतगुरु के अभाव में वे वेदों को पढ़ने के बाद भी उनके सही ज्ञान से परिचित नहीं हो सके।


कबीर, पाहन ही का देहरा, पाहन ही का देव।

पूजनहारा आंधरा, क्यों करि माने सेव।।

भावार्थ: कबीर साहेब कहते है कि पत्थर के बने मंदिर में भगवान भी पत्थर के ही हैं। पुजारी भी अंधे की तरह विवेकहीन हैं तो ईश्वर उनकी पूजा से कैसे प्रसन्न होंगे।


कबीर, कागद केरी नाव री, पानी केरी गंग।

कहे कबीर कैसे तिरे, पांच कुसंगी संग।।

भावार्थ: यह शरीर कागज की तरह नाशवान है जो संसार रुपी नदी की इच्छाओं-वासनाओं में डूबा हुआ है। जब तक पांच विकार (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) पर नियंत्रण नहीं कर लिया जाता है तब तक संसार से मुक्ति नहीं मिल सकती।


जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान ।।

भावार्थ: परमात्मा कबीर जी हिंदुओं में फैले जातिवाद पर कटाक्ष करते हुए कहते थे कि किसी व्यक्ति से उसकी जाति नहीं पूछनी चाहिए बल्कि ज्ञान की बात करनी चाहिए। असली मोल तो तलवार का होता है, म्यान का नहीं।


पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।

भावार्थ: परमात्मा कबीर जी कहते हैं कि किताबें पढ़ पढ़ कर लोग शिक्षा तो हासिल कर लेते हैं लेकिन कोई ज्ञानी नहीं हो पाता। जो व्यक्ति प्रेम वाला ढाई अक्षर पढ़ ले, वही सबसे बड़ा ज्ञानी है और सबसे बड़ा पंडित है।


माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।

भावार्थ: कबीर जी अपनी उपरोक्त वाणी के माध्यम से उन लोगों पर कटाक्ष कर रहे हैं जो लम्बे समय तक हाथ में माला तो घुमाते है, पर उनके मन का भाव नहीं बदलता, उनके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर जी ऐसे व्यक्ति को कहते हैं कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन को सांसारिक आडंबरों से हटाकर भक्ति में लगाओ।


मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारम्बार ।

तरवर से पत्ता टूट गिरे, बहुरि न लागे डारि ।।

भावार्थ: परमात्मा कबीर जी हिन्दू और मुस्लिम दोनों को मनुष्य जीवन की महत्ता समझाते हुए कहते हैं कि मानव जन्म पाना कठिन है। यह शरीर बार-बार नहीं मिलता। जो फल वृक्ष से नीचे गिर पड़ता है वह पुन: उसकी डाल पर नहीं लगता। इसी तरह मानव शरीर छूट जाने पर दोबारा मनुष्य जन्म आसानी से नही मिलता है, और पछताने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता।


ज्यों तिल माहि तेल है ,ज्यों चकमक में आग।

तेरा साईं तुझ ही में है ,जाग सके तो जाग।।

भावार्थ: कबीर जी हिंदू और मुसलमान दोनों को समझाते हुए कहते हैं कि जैसे तिल के अंदर तेल होता है और आग के अंदर रोशनी होती है ठीक वैसे ही हमारा ईश्वर, अल्लाह हमारे अंदर ही विद्यमान है, अगर ढूंढ सको तो ढूंढ लो।


पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।

एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात ।।

भावार्थ: कबीर जी लोगों को नेकी करने की सलाह देते हुए इस क्षणभंगुर मानव शरीर की सच्चाई लोगों को बता रहे हैं कि पानी के बुलबुले की तरह मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है। जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।

kabir ke dohe

जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै (बतावै), वाके संग सभि राड़ बढ़ावै।
या सब संत महंतन की करणी, धमर्दास मैं तो से वर्णी।।

भावार्थ: कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धमर्दास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी।

राम कहै मेरे साध को, दुःख ना दीजो कोए।
साध दुखाय मैं दुःखी, मेरा आपा भी दुःखी होय।।

हिरण्यक शिपु उदर (पेट) विदारिया, मैं ही मार्या कंश।

जो मेरे साधु को सतावै, वाका खोदूं वंश।।

साध सतावन कोटि पाप है, अनगिन हत्या अपराधं।
दुर्वासा की कल्प काल से, प्रलय हो गए यादव।।

भावार्थ: उपरोक्त वाणी में सतगुरु गरीबदास जी साहेब प्रमाण दे रहे हैं कि परमेश्वर कहते हैं कि मेरे संत को दुःखी मत कर देना। जो मेरे संत को दुःखी करता है समझो मुझे दुःखी करता है। जब मेरे भक्त प्रहलाद को दुःखी किया तब मैंने हिरणयकशिपु का पेट फाड़ा और मैंने ही कंश को मारा और जो मेरे साधु को दुःखी करेगा मैं उसका वंश मिटा दूंगा। इसलिए संत को सताने के करोड़ों पाप लगते हैं। जैसे अनगिन (अनंत) हत्याएं कर दी हों।

कबीर, और ज्ञान सब ज्ञानड़ी, कबीर ज्ञान सो ज्ञान।
जैसे गोला तोब का, करता चले मैदान।।

भावार्थ है कि यह तत्वज्ञान इतना प्रबल है कि इसके समक्ष अन्य संतों व ऋषियों का ज्ञान टिक नहीं पाएगा। जैसे तोब यंत्र का गोला जहां भी गिरता है वहां पर सर्व किलों तक को ढहा कर साफ मैदान बना देता है।

आच्छे दिन पाछै गए, सतगुरु से किया ना हेत।
अब पछतावा क्या करे, जब चिड़िया चुग गई खेत।।

kabir Ke Dohe [Hindi]

भावार्थ: प्रमाण मिलने के पश्चात् भी सतसाधना पूर्ण संत के बताए अनुसार नहीं करोगे तो यह अनमोल मानव शरीर तथा बिचली पीढ़ी का भक्ति युग हाथ से निकल जाएगा फिर इस समय को याद करके रोवोगे, बहुत पश्चाताप करोगे। फिर कुछ नहीं बनेगा।

मुस्लिमों को अल्लाह की जानकारी (Kabir ke Dohe Muslmano ke liye)

गरीब, हम ही अलख अल्लाह हैं, कुतुब गोस और पीर। 

गरीबदास खालिक धनी हमरा नाम कबीर।।


भावार्थ: कबीर परमात्मा ने बताया कि मैं अल्लाह हूं! मैं (खालिक) संसार का मालिक (धनी) हूँ। मैं कबीर सर्वव्यापक हूँ। अनंत ब्रह्मांडों की रचना मैंने ही की है।

हिन्दू कहूं तो हूँ नहीं, मुसलमान भी नाही

गैबी दोनों बीच में, खेलूं दोनों माही ।।

भावार्थ: कबीर साहब कहते हैं कि मैं न तो हिन्दू हूँ और न ही मुसलमान। मैं तो दोनों के बीच में छिपा हुआ हूँ।  इसलिए हिन्दू-मुस्लिम दोनों को ही अपने धर्म में सुधार करने का संदेश दिया। कबीर साहब ने मंदिर और मस्जिद दोनों ही बनाने का विरोध किया क्योंकि उनके अनुसार मानव तन ही असली मंदिर-मस्जिद है, जिसमें परमात्मा का साक्षात निवास है।


हिन्दू मुस्लिम दोनों भुलाने, खटपट मांय रिया अटकी |

जोगी जंगम शेख सेवड़ा, लालच मांय रिया भटकी।। 

भावार्थ: हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही आज ईश्वर-पथ से भटक गए हैं, क्योंकि इन्हें कोई सही रास्ता बताने वाला नहीं है। पंडित, मौलवी, योगी और फ़क़ीर सब सांसारिक मोहमाया और धन के लालच में फंसे हुए हैं। वास्तविक ईश्वर-पथ का ज्ञान जब उन्हें खुद ही नहीं है तो वो आम लोंगो को क्या कराएंगे? 


उदर बीज कहा था कलमा, कहा सुन्नत एक ताना।

बाप तुर्क मां हिंदवानी, सो क्यों कर मुस्लामाना।।

Kabir Saheb Ji Dohe in Hindi

परमात्मा कबीर साहिब कहते है कि मां के पेट में कलमा कहां था जब आप मां के पेट से आए तो आपकी सुन्नत भी नहीं थी अर्थात बाद में सब क्रियाएं कर दी गईं। आप जी ने पुरुष की तो सुन्नत कर उसे तो मुसलमान बना दिया परंतु मां तो जैसी थी वैसी ही रही अर्थात हिंदू ही रही।


अरस कुरस पर अल्लह तख्त है, खालिक बिन नहीं खाली।

वे पैगम्बर पाख पुरुष थे, साहिब के अब्दाली।।

भावार्थ: गरीब दास जी महाराज कहते है कि मोहम्मद, हजरत मूसा, हजरत ईसा आदि पैगम्बर तो पवित्र व्यक्ति थे तथा ये काल के कृपा पात्र थे, परन्तु जो आसमान के अंतिम छोर (सतलोक) में पूर्ण परमात्मा अल्लाहू अकबर अर्थात कबीर परमेश्वर विराजमान है वह साकार है मनुष्य के समान दिखाई देता है यही अल्लाह है।


हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।

आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना ।।

भावार्थ: परमेश्वर कबीर जी कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।


कलमा रोजा बंग नमाज, कद नबी मोहम्मद कीन्हया,

कद मोहम्मद ने मुर्गी मारी, कर्द गले कद दीन्हया॥

भावार्थ: परमात्मा कबीर कह रहे हैं कि कब मोहम्मद जी ने कलमा, रोजा, बंग पढ़ा और कब मोहम्मद जी ने मुर्गी मारी। जब नबी मोहम्मद जी ने कभी भी ऐसा जुल्म करने की सलाह नहीं दी फिर क्यों तुम निर्दोष जीवो की हत्या कर रहे हो?


गला काटि कलमा भरे, किया कहै हलाल। 

साहेब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।

भावार्थ: जो लोग बेजुबान जानवरों का गला काटकर कहते हैं कि हलाल किया है पर कभी यह नहीं सोचते कि जब वह साहेब (अल्लाहु अकबर) मृत्यु के बाद लेखा जोखा करेगा तब वहां क्या कहेंगे।


जो गल काटै और का, अपना रहै कटाय।

साईं के दरबार में, बदला कहीं न जाय॥

भावार्थ: जो व्यक्ति किसी जीव का गला काटता है उसे आगे चलकर अपना गला कटवाना पड़ेगा। परमात्मा के दरबार में करनी का फल अवश्य मिलता है। आज यदि हम किसी को मारकर खाते हैं तो अगले जन्म में वह प्राणी हमें मारकर खाएगा।


कहता हूं कहि जात हूं, कहा जू मान हमार।

जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार।।

भावार्थ: मांस भक्षण का विरोध करते हुए कबीर साहेब जी कहते हैं कि मेरी बात मान लो जिसका गला तुम काटते हो वह भी समय आने पर अगले जन्म में तुम्हारा गला काटेगा।


हिंदू-मुस्लिम, सिक्ख-ईसाई, आपस में सब भाई-भाई। 

आर्य-जैनी और बिश्नोई, एक प्रभू के बच्चे सोई।।

भावार्थ: कबीर परमेश्वर ने कहा है कि, आप हिंदू-मुस्लिम, सिख-ईसाई, आर्य- बिश्नोई, जैनी आदि आदि धर्मों में बंटे हुए हो। लेकिन सच तो यह है कि आप सब एक ही परमात्मा के बच्चे हो।


वेद कतेब झूठे नहीं भाई, झूठे हैं जो समझे नाहीं ||

भावार्थ है कि चारों वेद, चारों कतेब ( कुरान शरीफ-जबूर-इंजील-तौरेत) गलत नहीं हैं। परंतु जो उनको नहीं समझ सके वे नादान हैं।


कबीर सोई पीर है जो जाने पर पीर,

जो पर पीर न जाने सो काफिर बेपीर।|

भावार्थ: कबीर जी ने कहा था कि सच्चा संत वही है जो सहानुभूति रखने वाला और दूसरों का दर्द समझने वाला हो, जो दूसरों का दर्द नहीं समझता वह पीर यानी संत नहीं हो सकता वह तो काफिर है।


काज़ी बैठा कुरान बांचे, ज़मीन बो रहो करकट की।

हर दम साहेब नहीं पहचाना, पकड़ा मुर्गी ले पटकी ||

kabir Ke dohe in Hindi

भावार्थ: कबीर साहब कहते हैं कि मौलवी और काजी कुरान पढ़ते हैं, लेकिन उस पर पूरी तरह से अमल नहीं करते हैं, या यों कह लीजिये कि उसके अनुसार कर्म नहीं करते हैं। वो हर जीव में परमात्मा को नहीं देख पाते हैं, यही वजह है कि वो मुर्गी-मुर्गा, बकरा-बकरी सहित अन्य कई जीवों को पकड़ते हैं और उन्हें मार के खा जाते हैं। कबीर साहब हर जीव पर दया का भाव रखते हैं और हर जीव के अंदर परमात्मा का निवास मानते हैं, इसलिए उन्होंने जीव हत्या का पुरजोर विरोध किया।

निष्कर्ष

अतः सभी मनुष्यों को जाति, धर्म, लिंग से ऊपर उठकर अपने मोक्ष के लिए प्रयास करना चाहिए साथ ही साथ आपस में कोई मतभेद नहीं रखना चाहिए। वर्तमान में कबीर साहेब की शिक्षाओं का प्रचार संत रामपाल जी महाराज कर रहे है। उनसे नामदीक्षा लेकर कबीर साहेब की शिक्षाओं को जीवन में ढाला जा सकता है। नाम दीक्षा लेने के लिए फार्म भरें


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