आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना। परमेश्वर कबीर जी कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया ।
कबीर, सुमिरण से सुख होत है, सुमिरण से दुःख जाए।
कहै कबीर सुमिरण किये, साईं माहिं समाय।। नाम(उपदेश) को केवल दु:ख निवारण की दृष्टिकोण से नहीं लेना चाहिए बल्कि आत्म कल्याण के लिए लेना चाहिए। फिर सुमिरण से सर्व सुख अपने आप आ जाते हैं।
कबीर, लूट सको तो लूटियो, राम नाम की लूट।
फिर पीछे पछताओगे, प्राण जाएंगे छूट।। हमें यह मनुष्य जीवन भक्ति धन को बढ़ाने के लिए मिला है। यदि हमने इसे यूं ही बर्बाद कर दिया तो हम जीवन छूटने के बाद पछताने के सिवाय कुछ प्राप्त नहीं कर पाएंगे। पूर्ण परमेश्वर कबीर साहेब की सतभक्ति करके ही हम मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।
कबीर, दिन को रोजा रखत हैं, रात हनत है गाय।
यह खून वह बंदगी, कहो क्यों खुशी खुदाय।। कबीर परमेश्वर ने मुस्लमानों को समझाया है कि आप दिन में रोजा रखते हो और रात को गाय-बकरे आदि का खून करके मांस खाते हो। एक तरफ तो खुदा की इबादत और दूसरी तरफ बेजुबान जानवरों की हत्या करते हो। ऐसे अल्लाह कैसे खुश होगा। कुछ तो विचार करो।
आज के समय में हर कोई तनाव में नजर आ रहा है जबकि परमात्मा कहते है:- चिंता तो हरि नाम की, और न चिंता दास। जो कोई चिंता नाम बिना, सोई काल की फांस।। अर्थात चिंता केवल परमात्मा के नाम की होनी चाहिए जिससे परमात्मा सारे काम सफल बनाता है तथा काल जाल से निकालकर मोक्ष करा देता है।
जीने की राह हे मानव! आपको नर शरीर मिला है जो नारायण अर्थात् परमात्मा के शरीर जैसा अर्थात् उसी का स्वरूप है। अन्य प्राणियों को यह सुन्दर शरीर नहीं मिला। इसके मिलने के पश्चात् प्राणी को आजीवन भगवान की भक्ति करनी चाहिए। — जीने की राह (आध्यात्मिक पुस्तक) … Read It (Click)
जन करो उस रब का, जो दाता है कुल सबका। गीता अध्याय 15 के श्लोक 17 में कहा गया है कि उत्तम पुरुष तो अन्य ही है जिसे परमात्मा कहा जाता है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। वह अविनाशी परमेश्वर है।
मोह और माया में क्या अंतर है? मोह — देह व देह के सबंध,व्यक्ति,परिस्थिति,और स्थान पर होता है। माया — माया मने रावण होता है रावण मने 5 विकार काम,क् रोध, मोह, लोभ, अंहकार। माया के अन्दर ही मोह नामक विकार होता है।
काम से क्रोध, क्रोध से अहंकार, अहंकार से लोभ, और लोभ से मोह उत्पन्न होता है यानी काल उद्देश्य यही है कि किसी तरह जीवो को मोह में फंसा दू। इसलिए मोह को इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन कहा गया है। इसलिए इंसान को एक सन्यासी की भांति सोचना चाहिए कि ये सब रिश्ते नाते मोह को उत्पन्न करते हैं और मोह हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है इसलिए नात रिश्तेदारों से मजबूरी या कर्तव्य समझ कर मिलो आसक्त होकर नही कि उनके मिलने से खुशी होगी। मिलते समय डर रहना चाहिए कि कही मोह न हो जाये इससे।🙏
इंसान को चाहिए कि वो ज्यादा से ज्यादा निरंतर प्रतिदिन सत्संग सुने क्योंकि बिना सत्संग के ज्ञान नही हो सकता और बिना ज्ञान के वैराग्य नही हो सकता और बिना वैराग्य के मोक्ष नही हो सकता। इसलिए जिसको मोक्ष चाहिए उसे वैरागी बनने का प्रयास करना चाहिए संसार की किसी भी वस्तु में मोह नही रखना चाहिए।
भगवान का प्यार चाहिए तो अहंकार मान बड़ाई का त्याग करो और अहंकार और मान बड़ाई त्यागनी है तो माया धन को त्यागो । गरीब बने रहो। क्योंकि अगर अमीर बन गए पैसे ज्यादा हो गए तो जिस प्रकार नौका में अधिक पानी भर जाने से डूब जाती है उसी तरह घर मे अधिक धन हो जाने से अहंकार और मान बड़ाई आ जाती है और इसके आने से भगवान कोसों दूर चले जाते हैं। अब आप निर्णय करो भगवान के पास रहना है या भगवान से दूर जाना है।
इंसान को चाहिए कि वो ज्यादा से ज्यादा निरंतर प्रतिदिन सत्संग सुने क्योंकि बिना सत्संग के ज्ञान नही हो सकता और बिना ज्ञान के वैराग्य नही हो सकता और बिना वैराग्य के मोक्ष नही हो सकता। इसलिए जिसको मोक्ष चाहिए उसे वैरागी बनने का प्रयास करना चाहिए संसार की किसी भी वस्तु में मोह नही रखना चाहिए।
पैदा होने से पहले सब लोग कहा थे और मरने के बाद सब कहा होंगे🤔 इसलिए मनुष्य को एक सन्यासी की भांति सोचना चाहिए कि सब रिश्ते नाते मोह को उत्पन्न करते हैं और मोह इन रिश्तों को इतनी जोर से पकड़ लेता है जैसे एक लोभी पुरुष नदी में डूबते हुए भी धन की गठरी को नही छोड़ता और आखिर में उसी गठरी के बोझ से वो स्वयं भी डूब जाता है, इसलिए न किसी से नाता टूटने का दुख मानो न जुड़ने की खुशी । रिश्ते तो बदलते रहते हैं। रिश्तों में परिवार में आस्था न लगाओ।
ये बात बिल्कुल सत्य है कि इंसान इस काल के लोक में कभी खुश या सुखी नही रह सकता है क्योंकि खुश या सुखी रहने के लिए परिवार का होना अतिआवश्यक है अगर मान लो परिवार है भी भाई बहन माता पिता आदि तो भी इंसान खुश या सुखी हमेशा नही रह सकता या यूं कहे कुछ क्षण के लिए खुश हो सकता है क्योंकि परिवार में भी आपस मे प्यार बहुत मुश्किल से रहता है अधिकतर सब लड़ते ही रहते हैं आपस मे। वास्तविक परिवार सतलोक में मिलेगा फिर सब सुखी हो जाएंगे हमेशा के लिए, इसलिए हमें आसक्ति सतलोक में लगानी चाहिए।
ज्ञान और वैराग्य से इंसान के अंदर पूर्ण आनंद व शांति आ जाती है। ज्ञान व वैराग्य से इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं इच्छाओं के समाप्ति से संतोष व संतोष से शांति उत्पन्न होती है किसी चीज का ज्ञान है कि ये इस वजह से हुआ तो इंसान दुखी नही होगा खुश रहेगा। इसलिए कबीर साहेब जी ने कहा है “ज्ञान रत्न का जतन कर”।
संखो लहर मेहर की उपजे, कहर नही जहां कोई | दास गरीब अचल अविनाशी वो सुख का सागर सोई|| लोग खुशी भी चाहते हैं और प्रेम को समझना भी नही चाहते हैं अब उनको कौन बताये बिना प्रेम के खुशी या सुख नही मिल सकता। जहां प्रेम है लोगों में क्या पाए क्या दे दें कितनी मदद कर दें (मेहर) वही खुशी का निवास है। जहां से हम आये हैं वहां के लोगो का रहन सहन देखो और वैसे ही यहां भी रहना सीखो आदत डालो तभी मृत्युपर्यन्त उसी आदत के साथ वहां चले जायेंगे जहाँ रहने लायक तुम्हारा नेचर बन गया है। जहां रहने लायक तुम बन चुके होंगे । इसलिए सतलोक में रहने लायक बनो तो सतलोक चले जाओगे।
कबीर, प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय। राजा प्रजा जेहि रुचे , शीश देय ले जाए। ——- प्रेम कही बाजार में नही बिकता इसको तो शीश देकर लेना पड़ता है। जिसको प्रेम रूपी अनमोल रत्न चाहिए तो उसको अहंकार बिल्कुल त्याग देना होता है। अपनी खुशियों का भी त्याग करना होता है। प्रेम करना किसी सुरमा का काम है लोभी पुरुष शीश नही दे सकता न ही वो प्रेम कर सकता है। अगर कोई आपके जैसा प्रेम करने वाला मिल जाता है तो फिर प्रेम बढ़ना शुरू हो जाता है। बिना अपने जैसा कोई मिले प्रेम नही बढ़ सकता वो जितना ही उतना ही रहेगा। और जब बढ़ जाएगा तो वो सबके प्रति भगवान व भगवान के सभी बच्चों के प्रति समान हो जाएगा
कबीर, प्रेम भाव इक चाहिए, भेष अनेक बनाय। चाहे घर मे बास कर चाहे बाहर जाय।। प्यार होना चाहिए कबीर परमेश्वर जी बताते हैं । लेकिन लोग प्यार का मतलब नही समझते हैं प्रेम का मतलब होता है इष्ट की खुशी में खुश रहना उसके अनुसार चलना केयर करना, ध्यान रखना उसकी खुशी का। अगर कोई इंसान इष्ट से बहुत प्रेम कर रहा है और सबसे नफरत या उतना नही तो वो प्रेम नही दिखावा है । परमेश्वर कबीर जी बताते हैं प्रेम एक स्वभाव है ये अचानक नही पैदा हो जाता है पिछले पुण्यकर्मों की वजह से इंसान के अंदर ये गुण विद्यमान होता है। सतभगति से ज्ञान से इसको और बढ़ाया जा सकता है। प्रेम करना सबके बस की बात नही इसमे तो शीश देना पड़ता है।
माया को समझना अति दुर्लभ है इस संसार मे हर जगह माया व्याप्त है माया का अर्थ होता है- जो है नही। अर्थात जिसे हम अपना समझते हैं वो अपना नही होता। व जिसे हम अपना नही समझते वो अपना होता है। कोरोना को हम खतरनाक समझ रहे हैं लेकिन ये खतरनाक नही है इसी तरह जिसे हम स्त्री समझते हैं वो वास्तव में स्त्री नही है उसमे सारे गुण पुरुषों वाले होते हैं इसीलिए स्त्री को पुरुष अच्छे लगते हैं और पुरुषों को स्त्रियां अगर पुरुष या स्त्री इस सत्य को समझ ले कि वो स्त्री नही पुरुष ही है हमारे जैसे तो सारे विकार अपने आप खत्म हो जाते हैं। इंसान इस सत्य को माया को समझ ले तो उसके मोक्ष में कोई बाधा नही ।